मैदान नहीं, तो मैच नहीं—बुग्रासी की यही हकीकत आज असल खबर है। बुलंदशहर जिले के इस कस्बे में खेल प्रतिभा तो है, पर मंच नहीं। सैकड़ों साल से चलती आई अफगान कबड्डी की शान अब ठहर गई है, क्योंकि खेलने लायक जमीन ही नहीं बची। क्रिकेट किसी तरह निजी प्लॉटों में टिक गया है, पर कबड्डी, कुश्ती, वॉलीबॉल और फुटबॉल जैसे खेल या तो छिटपुट दिखते हैं या गायब हैं। इनडोर गेम्स के लिए सार्वजनिक जगह? फिलहाल शून्य।
स्थानीय युवाओं की सबसे बड़ी रुकावट बुनियादी ढांचा है—सादा सा समतल खेल मैदान, सुरक्षित बाउंड्री, बेसिक लाइटिंग और पीने के पानी तक की किल्लत। जो भी टूर्नामेंट होते थे, वे निजी जमीन पर निर्भर रहे। यही वजह है कि परंपरागत अफगान कबड्डी भी बंद हो गई, जबकि इसमें दूर-दराज़ से टीमें आती थीं और मुकाबले महीनों चलते थे।
पूर्व चेयरमैन सरफराज़ खान के समय बुग्रासी बारहबस्ती के खिलाड़ियों ने पहचान बनाई थी। मगर निजी कोशिशों की भी एक हद होती है—जमीन और रखरखाव के बिना कोई भी खेल मॉडल टिकता नहीं। आज स्थिति यह है कि खेल सीखने का शौक रखने वाले युवा कोचिंग के लिए दूसरे कस्बों और शहरों की ओर निकलते हैं, जिससे समय और पैसे की मार अलग से पड़ती है।
नगर पालिका अध्यक्ष ओमदत्त लोधी ने भी माना है कि सबसे बड़ी दिक्कत जमीन की है। नगर सीमा में पर्याप्त खाली जगह नहीं है और जो है, उस पर अतिक्रमण की समस्या है। प्रशासन की योजना पहले जमीन साफ करने की है, उसके बाद सरकार से औपचारिक तौर पर मैदान और स्टेडियम की मांग आगे बढ़ाने की बात कही गई है। यानी इरादा है, पर शुरुआत जमीन मुक्त कराने से ही होगी।
मामला सिर्फ ‘जगह नहीं है’ जितना सीधा भी नहीं। बेतरतीब शहरी विस्तार, सामुदायिक जमीन की अस्पष्ट रजिस्ट्रेशन स्थिति और साझा उपयोग की परंपरा का टूटना—ये तीन कारण खेल ढांचे को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। जब स्कूलों और समुदाय की जमीनें साझे उपयोग में नहीं रहतीं, तो बच्चों के लिए खुला मैदान दुर्लभ चीज बन जाता है।
इसी कमी का असर दूरगामी है। खेल सिर्फ करियर की सीढ़ी नहीं, यह स्वास्थ्य, अनुशासन और समुदाय को जोड़ने का जरिया है। जब स्थानीय लीग और दंगल बंद होते हैं, तो प्रतिस्पर्धा और सीखने का माहौल भी गायब हो जाता है। नतीजा—प्रतिभा शुरुआती उम्र में ही छिटक जाती है या पढ़ाई-काम के दबाव में खेल पूरी तरह छूट जाता है।
सबसे पहले जमीन की स्पष्ट सूची बने—कहाँ-कहाँ सरकारी/नगर भूमि उपलब्ध है, किस पर अतिक्रमण है, और कौन-सी जगह खेल के लिए सबसे उपयुक्त है। एक बार यह मैपिंग तय हो जाए, तो एक बहुउद्देशीय मिनी-ग्राउंड और एक परंपरागत अखाड़े से शुरुआत हो सकती है। कबड्डी के लिए मिट्टी का पिट, कुश्ती के लिए सुरक्षित अखाड़ा और फुटबॉल-वॉलीबॉल के लिए समतल घेरा—कम लागत में भी यह संभव है।
दूसरा, साझा उपयोग का मॉडल अपनाइए। स्कूल और कॉलेज के मैदानों का उपयोग शाम 4 बजे के बाद समुदाय के लिए खोलना कठिन नहीं है। एक साधारण समझौता—समय तय, रखरखाव की जिम्मेदारी स्थानीय खेल समिति पर, और सुरक्षा के लिए निगरानी—खेल कैलेंडर को तुरंत जीवन दे सकता है। इसमें महिला खिलाड़ियों के लिए अलग समय स्लॉट और सुरक्षित सुविधाएं अनिवार्य रखें।
तीसरा, फंडिंग का मिश्रित मॉडल। नगर निकाय की वार्षिक योजना में खेल मद सुनिश्चित हो, जिला स्तर पर उपलब्ध योजनाओं और राज्य/केंद्र की खेल योजनाओं के साथ प्रस्ताव मिलाए जा सकते हैं। उद्योगों की कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (CSR) से फ्लडलाइट, जिम्नेजियम की बुनियादी मशीनें, और टॉयलेट/चेंजिंग रूम जैसे काम जल्दी पूरे हो सकते हैं। बुग्रासी के आसपास की औद्योगिक इकाइयों और व्यापारिक संघों को स्पष्ट परियोजना-प्लान दिखाइए—दिखेगा तो फंड भी आएगा।
चौथा, संचालन और रखरखाव की जवाबदेही। एक स्थानीय खेल समिति बने जिसमें वार्ड प्रतिनिधि, शारीरिक शिक्षा शिक्षक, अनुभवी खिलाड़ी और अभिभावक हों। यही समिति समय-सारणी, कोच की नियुक्ति, और उपकरणों की खरीद/रखरखाव देखे। पंजीकृत क्लबों को जिम्मेदारी से जोड़ना बेहतर रहता है—क्योंकि वही मैदान की धड़कन बनते हैं।
पाँचवां, महिला और दिव्यांग खिलाड़ियों के लिए समावेशी ढांचा। अलग चेंजिंग रूम, साफ शौचालय, सुरक्षित रास्ता, और बेसिक लाइटिंग—इनके बिना भागीदारी आधी रह जाती है। खेल कार्यक्रमों के आमंत्रण में लड़कियों और शुरुआती उम्र के खिलाड़ियों के लिए विशेष श्रेणियाँ बनाएं, ताकि शुरुआत से ही बराबरी की आदत बने।
छठा, कोचिंग और कैलेंडर। जिला खेल कार्यालय और मान्यता प्राप्त कोचों के साथ पार्ट-टाइम कोचिंग शेड्यूल तय हो। साल भर का कैलेंडर बनाईए—गर्मी की कोचिंग कैंप, रेन-सेफ इनडोर गतिविधियाँ, और सर्दियों में इंटर-वार्ड लीग। अफगान कबड्डी की वापसी के लिए तारीख, नियम और आयोजन समिति पहले से तय कर दें—टीमें खुद ब खुद जुड़ेंगी।
सातवां, सुरक्षा और मानक। मैदान की बाउंड्री, बेसिक फर्स्ट-एड किट, बारिश में जलनिकासी, और सरल रजिस्ट्री—कौन खेल रहा है, किस टूर्नामेंट में कितने खिलाड़ी हैं—ये चीजें छोटी लगती हैं, पर भरोसा और निरंतरता यहीं से बनती है।
बुग्रासी की कहानी किसी एक कस्बे की नहीं, यह पूरे बुलंदशहर के छोटे-छोटे इलाकों की साझा चुनौती है। फर्क यह है कि यहाँ अफगान कबड्डी जैसी परंपरा रही है, जिसे पुनर्जीवित करना सांस्कृतिक गौरव का सवाल भी है। जमीन की पहेली सुलझते ही तस्वीर बदल सकती है—एक मिनी-ग्राउंड, एक अखाड़ा, और एक भरोसेमंद कैलेंडर से शुरुआत कीजिए। प्रतिभा इंतजार में है; उसे बस खेलने की जगह चाहिए।